हीरा मंडी की असली कहानी क्या है? Heeramandi Real Story !

हीरा मंडी की असली कहानी क्या है? Heeramandi Real Story
हीरा मंडी की असली कहानी क्या है? Heeramandi Real Story

हीरा मंडी की असली कहानी क्या है? Heeramandi Real Story

हीरा मंडी की असली कहानी क्या है? Heeramandi Real Story

यह बात है भारत की आजादी के पहले की लाहौर में तांगा चलाने वाले मंगू कोचवान  को एक रोज पता चलता है कि भारत में नया कानून आने वाला है जिससे अंग्रेजों का राज खत्म हो जाएगा।  कानून के लागू होने की तारीख थी 1 अप्रैल ठीक उसी दिन एक गोरा आदमी मंगू के तांगे को रोकता है मंगू से पूछता है  साय बहादुर कहां जाना मंगता गोरा  अंग्रेज जवाब देता है हीरा मंडी किराया ₹5  होगा मंगू जवाब देता है दोनों के बीच किराए को लेकर झड़प शुरू होती है और देखते ही देखते मंगू उसे जमकर लात  घूसे जमा देता है।  मंगू के अनुसार उस दिन नया कानून लागू हो गया था इसलिए वाजिब किराया मांगना उसका हक था लेकिन फिर कुछ ही देर में पुलिस वाले आते है और मंगू को जेल में ठूस दिया जाता है।  अभी-अभी आपने जो सुना वो सहादत हसन मंटो की एक कहानी ‘नया कानून’ का मजमून है आगे जाकर इस कहानी को पाकिस्तान में 12वीं के छात्रों के सिलेबस में जोड़ा गया सिर्फ एकछोटे से अंतर के साथ कहानी में जहां मंगू हीरा मंडी कहता है उसमें से हीरा हटा दिया गया वजह दरअसल हीरा मंडी लाहौर का रेड लाइट एरिया है। इसी हीरा मंडी के ऊपर संजय लीला भंसाली Netflix पर एक टीवी सीरीज लेकर आए है।
इतिहास मे छवका लगाना भंसाली हुनरहै । तो सोच क्यू नहीं हम आपको हीरमंडी की असली और दिलचस्प इतिहास से रूबरू करवाए । हीरमंडी यानि हीरो का बाजार कभी लाहौर एक की इन गलियों में दाखिल होने वाले हर शख्स को हवेलियों से घुंगरू की आवाज आती थी लगता था मानो पूरा शहरी ढोलक की थाप पर थिरक रहा हो नाच गाना पेश करने वाली उन लड़कियों को तवायफ कहा जाता था आज ये नाम कुछ काले कोड़ चुका है लेकिन ऐसा हमेशा से नहीं था शायरी संगीत नृत्य और गायन जैसी कलाओं में तवायफ को महारत हासिल होती थी और एक कलाकार के तौर पर उनको बेहद इज्जत मिलती थी।  ऐतिहासिक दस्तावेज बताते हैं कि 19वीं सदी के अंत में लखनऊ की तवायफ राज के खजाने में सबसे ज्यादा टैक्स जमा किया करती थी । भारत की तवायफ की कहानी अपने आप में काफी लंबी है लेकिन फिलहाल हीरा मंडी पर चलते हैं। 

 हीरामंडी की Real Story 

एकदम शुरू से शुरुआत करें तो साल 1584 की बात है मुगल बादशाह अकबर ने फतेहपुर सीकरी से अपना बोरा बिस्तर समेटा और लाहौर आकर बस गए।  1598 तक लाहौर मुगलिया सल्तनत की राजधानी रहा और इस दौरान शह ने कई रंग देखे अकबर ने लाहौर किले के पास दरबारी अमीरों और मुलाजिमों के लिए एक रिहायशी इलाका बनवाया जल्दी इसने मोहल्ले का रूप ले लिया चूंकि यह शाही दरबार के नजदीक था इसलिए इसे शाही मोहल्ला कहा गया।  धीरे-धीरे इस इलाके में तवायफ का आना हुआ इनमें से अधिकतर काबुल से लाई गई थी इनका काम था दरबार में नाच गाने का प्रोग्राम कर बादशाह का जी बहलाना नृत्य की इस तरीके को मुजरा कहा जाता था और नाच गाना सिखाने के लिए बाकायदा उस्ताद रखे जाते थे तवायफ को वो ओहदा हासिल था कि लोग अपने बच्चों को तमीज और तहजीब सिखाने के लिए उनके पास भेजा करते थे मुगल काल में तवायफ और शाही मोहल्ले की की शान बरकरार रही लेकिन फिर 18वीं सदी में शानो शौकत उजड़ गई। पहले नादर शाह ने भारत पर आक्रमण किया फिर अहमद शाह अब्दाली ने दोनों की मंजिल दिल्ली थी लेकिन रास्ते में लाहौर पड़ता था, सो वो भी बच ना सका उस दौर में अब्दाली का आतंक इस कदर था कि कहावत प्रचलित हो गई “खांदा पींदा लाहे द बाकी अहमद शाहिदा” अर्थात जो खाया पिया वही अपना है बाकी तो सब अब्दाली लूट कर ले जाएगा । अब्दाली के हमले के दौरान ही लाहौर में पहली बार वैशालय  बने पहला धोबी मंडी में और दूसरा मोहल्ला दरा शिखो में अफगान सैनिक जहां हमला करते थे वहां से औरतों को उठा लाते थे और उन्हें लाहौर में बने वैश्यालय में भर्ती कर देते थे इस दौरान तवायफ का काम लगभग बंद हो गया ध्यान दीजिए तब सेक्स वर्कर और तवायफ होना दो अलग-अलग बातें हुआ करती थी अफगान के बाद के लाहौर पर सिखों का राज कायम हुआ महाराजा रणजीत सिंह के दौर में तवायफ की संस्कृति एक बार फिर से शुरू हुई और बताया तो यहां तक जाता है कि महाराजा रणजीत सिंह इनमें से एक के इश्क में पड़ गए थे । इस कहानी के कई अलग-अलग वर्जंस हैं एक वर्जन कहता है कि महाराजा ने तवायफ से शादी कर ली जिसके बाद हरमंदिर साहिब में उन्हें कोड़े मारे जाने की सजा सुनाई गई हालांकि इस पर भी मतभेद है और कई इतिहासकार कहते हैं कि सजा बस सुनाई गई असल में कोड़े मारे नहीं गए खैर एक दूसरा वर्जन भी है जो कहता है शादी नहीं हुई थी बस इश्क हुआ था महाराजा ने उसके कहने पर लाहौर में एक मस्जिद बनवाई जिसे मस्जिद तवायफ कहा गया और बाद में उसके लिए शाही मोहल्ले के पास एक घर भी बना बनवाया। 

हीरमंडी नाम कैसे पड़ा ?

जगह का नाम हीरा सिंह दी मंडी पड़ गया जो आगे जाकर शॉर्ट में हीरा मंडी हो गया।  सिखों के दौर में हीरा मंडी में रहने वाली तवायफ को दरबारी संरक्षण मिला हुआ था लेकिन फिर दो एंग्लो सिख युद्धों में सिखों की हार हुई और लाहौर पर ब्रिटिशर्स का कब्जा हो गया अंग्रेज माल उघने आए थे सो वो काहे को तवायफ को भत्ता देते धीरे-धीरे शहर में एक बार फिर वैशालय  खुल गए तवायफ रोजी रोटी की खातिर सेक्स वर्क को मजबूर हो गई थी सो अंग्रेज सैनिक उनका खूब फायदा उठाते थे। हीरा मंडी का इलाका अंग्रेज छावनी से एकदम नजदीक था सबसे ज्यादा तवायफ यहां रहती थी । 1860 के आसपास इस इलाके में प्लेग फैला सो अंग्रेजों ने अपनी छावनी छोड़ दी और शहर के बाहर जा बसे।  प्लेग के गुजरने के बाद यहां की हवेलियों को रईसों ने खरीद लिया और वो तवायफ को संरक्षण देने लगे जिसके चलते हीरा मंडी में नाच गाने का कल्चर बना रहा अंतर बस इतना आया कि मुजरा अब हीरा मंडी में ही दिखाया जाता था जिसे देखने रईस और संभ्रांत लोग यहां चलकर आते थे।  20वीं सदी की शुरुआत में हीरा मंडी का बड़ा नाम हुआ करता था नूरजहां और खुर्शीद बेगम जैसे कलाकारों की शुरुआत भी यहीं से हुई थी।  सर गंगाराम जिनके नाम पर दिल्ली का गंगाराम हॉस्पिटल बना उनका घर भी यहीं था उस दौर में हीरा मंडी दंगल के लिए जाना जाता था कुश्ती का नहीं बल्कि संगीत का दंगल।  1940 के दशक में उस्ताद बड़े गुलाम अली खान और उस्ताद उम्मीद अली खान के बीच एक जबरदस्त दंगल हुआ था जिसे देखने हजारों की भीड़ उमड़ी थी दंगल का नतीजा क्या रहा दोनों दिग्गज रात भर गाते रहे कोई हार मानने के लिए तैयार नहीं था बड़ी मुश्किल से उन्हें रोका गया और अंत में दोनों को विजेता घोषित कर दिया गया जीत की खुशी हालांकि ज्यादा दिनों तक कायम नहीं रही 1947 में बंटवारे के बाद लाहौर पाकिस्तान के हिस्से चला गया जिसकी स्थापना ही धार्मिक पहचान के आधार पर हुई थी सो हीरा मंडी में पुरानी शानो शौकत नहीं रही इसके बावजूद तवायफ का कल्चर कुछ तीन दशकों तक कायम रहा लेकिन फिर 1978 में जियाउल हक तानाशाह बन गए और पाकिस्तान में धन का फ्लेवर दोगुना हो गया जिया उल हक ने मुजरे  पर बैन लगा दिया और तवायफे हीरा मंडी से बेदर हो गई बाद में तवायफ के पेशे की जगह सेक्स वर्क ने ले ली और कभी लाहौर की शान समझा जाने वाला शाही मोहल्ला रात के अंधेरे में होने वाले जिस्म फरोशी के कारोबार में गुम हो गया जहां तक भंसाली की इसी नाम से आई वेब सीरीज की बात है भंसाली बताते हैं उन्हें आइडिया कुछ 16 साल पहले उनके दोस्त मोइन बेग ने दिया था भंसाली तभी इस पर फिल्म बनाना चाहते थे लेकिन फिर व सावरिया बनाने में लग गए गंगूबाई बनाने के बाद उन्हें फिर स्क्रिप्ट की याद आई और उन्होंने Netflix को कहानी सुनाई भंसाली फिल्म बनाना चाहते थे लेकिन फिर Netflix को कहानी इतनी पसंद आई की उन्होंने सीरीज की पेशकस कर दी भंसाली  ने इसके बाद एक सीरीज बनाई जो अब आप Netflix पर देख सकते है।
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